Wednesday, May 31, 2017

अपने में

कभी-कभी
अकेले में,
अपने में उतर जाना भी अच्छा होता है।
चुप छूट जाना भी अच्छा होता है।
अपने में उतरते हुए जानना
कि आदमी अब तक कितना टूटा है।
कि कितना मवाद पडा है
कि कौन फफोला पका है
कि कौन-सा दर्द
नासूर बनने से छूटा है।
और न चाहते भी रोना कहाँ- कहाँ छूटा है।
हमारी हंसी कहाँ गिरी
सपना हमारा कहाँ टूटा है।
कितनी खुशियां हमने समेटी और
कहाँ-कहाँ बोर्राये हम
हमने सम्बंधों में क्या-क्या गवाया और
सजदे में कहां सिर नहीँ झुकाया
यहां तक पहुंचने में
मजबूरियाँ रही मेरी
कभी अकेले बैठ
जानना ही अच्छा होता है
तभी तो
अकेले
अपने में चुप छूट जाना
भी अच्छा होता है।
 ---------      

सुरेन्द्र भसीन

जन्मदिन!
तो सभी का एक ही होता है ।
जब कोई पूर्ण करता है
उदर से धरा तक की यात्रा
भय से परिपूर्ण
सहमी-सिकुड़ी देह व आंते लेकर
अँखियाँ और मुट्ठियाँ मीचे
न समझ होकर।
उधर ज्ञान-प्रकाश
नेत्रर्दुगों से प्रवेश करने को आतुर...
माँ की गोद का निर्भय करता आश्वासन...
साथ में गले से होकर
पेट में उतरता
पच-पुच करता अमृत-दूध...
कानों में घुलता अनजान-अ- पहचाना शोर
और यात्रा भरा, रोमांच भरा
एक जन्मदिन होता परिपूर्ण?
होगाकि नहीँ? में झूलता
एक स्नेहमयी अवतरण...।

–----------            सुरेन्द्र भसीन

Saturday, May 27, 2017

Friday, May 26, 2017

raja ya purja

राजा !
कैसा राजा ?
वह  तो
सामान्यजन से भी अधिक
लाचार, पीड़ित, नियंत्रित व निर्देशित
अपनी निजता गवां चुका (बेच चुका )
व्यवस्था का एक निरीह पुर्जा है...

एक कृपण, चरित्रविहीन
चेहरा-मोहरा मात्र
जो धड़कता, दहकता अनुदेशों पर...

व्यवस्था का एक
आदर्श, अनुकरणीय विचरता
मांसपिंड मात्र,
महज  गतिकरता...

एक डुगडुगी (कठपुतली)
कहलाने को राजा !
 -------------                 सुरेन्द्र भसीन


Wednesday, May 10, 2017

काफिया, मात्राएँ या तुकबंदी मिलाने के तनाव

काफिया, मात्राएँ या तुकबंदी मिलाने के तनाव में रहकर लेखन करना कोई समझदारी नहीं, हाँ जो मिला सके, जिसे अच्छा लगे तो ठीक है मगर कविता के भाव को, विचार को काफिया, मात्राएँ या तुकबंदी मिलाने के तनाव में छोड़ देना तथा हीन भावना में आ जाना कि हमें कविता करनी आती नहीं या आएगी नहीं, गलत बात है। -सुरेंद्र (२५/४)
कहते हैं पहले भोजन होना, फिर पौष्टिक व् सुस्वादु होना फिर अच्छे से परोसा होना। 
अगर भाव और विचार नहीं, संवेदनाएं नहीं और फिर वह किसी के काम की नहीं, बेकार और फिर सही से लिखी यानी परोसी नहीं गईं तो मजा अधूरा ही है। सभी कुछ यानि पूरा प्रोसेस महत्वपूर्ण है। -सुरेंद्र (२६/४)
तुलसीदासजी, कालीदासजी, कबीरजी, मीराजी इत्यादि अनेक ने सुर में, लय में लिखा, तुकबंदी में लिखा जो ईश्वर को तो भाया ही, सर्वजन को भी विभोर करता रहा, और आज तक कर रहा है. मगर आधुनिक समाज युवा वर्ग सब कुछ उल्ट-पलट कर देखना समझना और ग्रहण करना चाहता है और उसमें अपना समसामयिक भी मिलाना चाहता है। इसलिए जहां कला के विभिन्न प्रकारों में तरह तरह के परिवर्तन और प्रयोग हुए वहां साहित्य और कविता के क्षेत्र में भी अनूठे प्रयोग हुए एवं नयी कविता पध्दत्तियों ने जन्म लिया नयी कविता, आधुनिक कविता, अकविता, विचार कविता इत्यादि(हालाँकि मेरा अनुभव इन सब में कवि कम है ). मुख्य बात जो देखने में आयी की किसी भी बंधन, परिपाटी में बंध कर कविता लिखना-पढ़ना नहीं चाहते हैं लोग। (२७/४)सुरेंद्र
शास्त्रीय गीत,शास्त्रीय संगीत, श्लोक , मंत्रोच्चार इत्यादि सभी कुछ बहुत ही लाभ दायक और परमसुखकारी तो होता है इसमें कोई संदेह नहीं मगर इसके कठोर नियमों का पालन करना, इनको साधना आज के आधुनिक जीवन शैली में अव्यवहारिक सा हुआ पड़ा है और जिन वजहों, या कारकों से यह सब अव्यवहारिक हुआ है उन्हीं सब वजहों से पुरानी कविता पध्दती या परिपाटी भी पाठकोँ, लेखकों ने नकार दी है। (२८/४) सुरेंद्र
आजकल सब सुगम चाहते हैं। सुगम गीत, सुगम नृत्य, सुगम संगीत एवं सुगम कविता। इसलिए ही कविता के इन रूपों को कुछ प्रसिद्धी मिली। कुछ मायने कुछ ही क्योंकि उसके अनेक कारण हैं जिनका उल्लेख करते हुए हम लोगों से यह चाहेंगे के लोग उनसे बचें या उनका निवारण करें ताकि इसका प्रचार प्रसार हो। हम ऐसा इसलिए चाहते हैं क्योंकि भविष्य में जाना इसी ने ही आगे है। (२९/४) सुरेंद्र
जिस समय या काल में इन नयी कविता पध्दत्तियों ने जन्म लिया नयी कविता, आधुनिक कविता, अकविता, विचार कविता इत्यादि तब लगभग ६०-८० दशक था। तब न जाने क्यों सभी कवि सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक असमानता से असंतुष्ट थे जो उन्होंने अपनी कविताओं में में बड़े ही जोर-शोर से उतारा या उभारा, हालत यह रहे की सामान्य जन ने समझा की यह कविता ऐसे ही विचार व्यक्त करने के लिए उपयक्त है और किसी भावना को ब्यान हम इसमें नहीं कर सकेंगे। जिससे लोग इससे कटते चले गए और इसका दायरा सिमटता चला गया। (१/५)सुरेंद्र
आक्रोश, दुख, उत्पीड़न, तनाव, सांसारिक- पारिवारिक कष्ट-क्लेश जिनसे त्रस्त होकर मानव कला की छाँव ढूंढ़ता है, आराम चाहता है, सकून चाहता है, कुछ देर गम भूलकर रुमानियत में खोना चाहता है, ठंडी हवा चाहता है और उसके लिए वह अपने गाढ़ी कमाई के पैसे खर्च करके कविता खरीदता है, तब भी कविता ने उसे वह न दिया, उसको प्रवचन दिया, उसका खोट बताया, उसका नासूर कुरेदा, उसको ही लतियाया,तो भला किसका दोष ? कवि का ? या कि कविता पद्धत्ति का? (२/५) सुरेंद्र
जब कला को माँ की तरह मानकर इंसान दुःख में उसकी गोद चाहता है। तब भी उसको कोरी नसीहत देने, उसको सारे जहां का गम बतलाने से उसके झख्मों पर मरहम नहीं लगता। उस समय के कवि ने ऐसी कोई रचनाएँ नहीं रचीं। 
उस समय के अधिकतर कवि अख़बारों के सम्पादक, यूनिवर्सिटी के हिंदी विभागाध्यक्ष, हिंदी के लेक्चरर या ऐसी ही किस्म के कुछ लोग बन बैठे थे जो इस कविता पध्दत्ती को अपनी जागीर समझने लगे, वे इसको अपना ाण्डा समझकर उसको अपने पंखों के नीचे दुबककर बैठ गए, वे इसे अपनी वाह... वही, अपनी उच्चता(महानता) का माध्यम समझकर लोगों को इसे कुछ विशिष्ट प्रकार की विधा बताने लगे, जो बड़ी मुश्किल थी, और सिर्फ भगवान् ने उन्ही को बक्शी थी, और उसपर उनका ही एकाधिकार था और जो आसानी से किसी को समझ आने वाली नहीं थी. जबकि समस्या यह थी कि उनमें से अधिकाँश खुद इस विधा में कविता करना नहीं जानते थे मगर, छुपाते थे यह भी वजह रही कि इन कविता के तरीकों को प्रसिद्धी नहीं मिली। (३/५ ) सुरेंद्र वाद, गुटबंदी, गिरोह बनाना , विचार लूटना, धकियाना, जबरदस्ती अपनी बात मनवाना, अपनों को छपवाना, संगठन का सदस्य बनाना, दूसरे को नीचे दिखाना, और काबिल न काबिल में फर्क फर्क न करना भी लेखकों ने कवियों ने खूब आजमाया, इस्तेमाल किया, पुरस्कारों को लानत तक बना दिया। आज खुद पुरस्कार मिलने पर हँसते हैं, शर्माते हैं, गौरवान्वित थोड़ा न महसूस करते हैं। ये गर्त भी कविता की हुई पड़ी है मगर आज भी सोचने को कोई तैयार नहीं, कोई भी गलती मानने, पीछे हटने को राजी नहीं। अब पाठक, आमजन क्या करे? क्या सोचे ?(४/५) सुरेंद्र
...और ये पुरूस्कार भी इन्हें कोई कोई कब तक बांटेगा ? और क्यों बांटेगा?... खैर! हम बात थोड़ी पीछे यह छोड़ आये कि जब आलोचक लोग, पत्रकार लोग, प्रोफेसर लोग, पी. अच्. डी. किये लोग जबरदस्ती कविता लिखने और कवि कहाने को उतारू हो गए तो कविता की भाषा, उसका स्वरूप, उसका मिजाज क्या रहा ? क्योंकि हर प्रोफेशन में कुछ खास गूढ़ शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है जो हिंदी के होते हुए भी सिर्फ उसी विशेषवर्ग में ही प्रचलित होते हैं, तो ऐसे-ऐसे शब्दों का चुनाव कर कविता में झोंका जाने लगा जो सामान्यजन की भाषा के न थे, उनकी पकड़ के बाहर के शब्द थे कविता में कभी प्रयुक्त न होते थे, कविता के मूड के हिसाब से कठोर व अनुप्युक्त थे . अनजाने में जिनका प्रयोग आज भी करते हुए कवि बड़ा खुश है और जनमानस हैरान कि ये चाँद की भाषा है क्या ? बानगी या उदाहरण हजारों हैं मगर मैं यहां समझने-समझाने के लिए हूँ किसी युद्ध के लिए नहीं। (८/५) सुरेंद्र
यह तो हुई आधुनिक कविता लिखने वालों की बात जिनकी वजह से यह कविता आम जन तक उतनी नहीं पहुँच सकी जितनी की पहुंचने चाहिये थी। जितनी भी वजह हमने ऊपर गिनाई हैं ये मुख्य वजह या कारण ही हैं इनके अतिरिक्त अन्य अनेक कारण और भी बौद्धिक गण जानते हो सकते हैं तो कृपया उनको भी सामने लाएं, उनका निराकरण करें तथा कविता और समाज का उद्धार करें।
ऊपर जो भी लिखा गया है आधुनिक कवियों और कविता को नजर में रखकर लिखा गया है मगर गेय कविता, छंदबद्ध कविता, गजल या पुरानी कविता परिपाटी पर व वैसी कविता को लिखने वालों को असली कवि सिद्ध करने वालों पर भी कुछ लिखा जाना बाकी है। (१०/५) सुरेंद्र
जैसे कि  आप जानते ही होंगे कि  हमारे पुराने कवि जैसेकि  कबीर जी, मीरा जी, सूरदास जी, रैदासजी इत्यादि कोई भी व्याकरण के जानकर या विद्वान न थे और जो कुछ लोग थे भी तो वे यह ध्यान में रखकर तो रचना नहीं करते थे कि कितनी मात्राएँ आ रही हैं ? याकि अनुस्वर या स्वर या शब्द या वाक्य की अनुवृत्ति कितनी बार हो रही है ? कौन सा  पद बन रहा है -दोहा है, रोला, सोरठा,छप्पय, गजल आदि आदि।  वे तो मुक़्त होकर अपने भाव, भक्ति भाव या किसी अन्य भाव में ओतप्रोत होकर, लीन होकर, बहकर, डूबकर अपने सच्चे भाव, आत्मा के उदगार, भावनाएं रचना में लिखा करते थे। अब किसी रचनाकार कवि के लिए यह सम्भव कहाँ था और है कि वह बैठा मात्राएँ गिने।  मीरा जी या सूरदासजी कृष्ण भक्ति में अपने आराध्य को रिझायेंगे कि मात्राएँ व छन्द गिनने -देखने बैठ जाएंगे।  अगर किसी ने अपनी बात तीन-चार या दो शेर  में या एक  पंक्ति में ही कह दी है तो  क्योंकर वह पांच शेर पूरे करने की जहमत उठाए कि वो गजल हो जाए और तभी कोई उसे स्वीकारे या छापेगा। (११/५)सुरेंद 
तो मुख्यतया भाव की पवित्रता और उसका सम्प्रेषण महत्वपूर्ण है।  चाय या कॉफी कितनी उम्दा बनी है महत्वपूर्ण है नकि उसका गिलास या कप जिसमें डालकर यह दी गई है। अब हुआ क्या कि बहुत ही सफल कालजयी रचनाएँ जब सामने आयीं तो हमारे यहाँ के विद्वानों ने उनका रहस्य जानने, उनकी नकल करने, उनका फार्मूला बनाने, उनके रिजल्ट (परिणाम ) को दोहराने के लालच में जब उनकी विशेषताओं को छांटकर एकत्रित किया तो ढांचा स्वरूप उनके हाथ मात्राओं की, शब्दों की गिनती, दोहराव, तुकबंदी, दोहा , रोला, सोरठा, छप्पय जैसे छंद समझ आए या हाथ आए। जो उन्होंने नालायक बच्चे की तरह बिना समझे जकड़ लिया और चाहा कि वे भी बन जाएं सफल, महान रचनाकार।  अब ये प्रयास तो ऐसा ही हुआ न मानो कि जो किसी देवी (कविता) की आत्मा(भाव ) छोड़कर उसका शरीर पकड़ ले, उसकी सुंदरता में खो जाए।  अब  गणिका और देवी दोनों में जो मूल अंतर है, वह तो रहेगा ही न। चाहे दोनों बराबर सुंदर ही क्यों न दिखें। तो जिद अगर मात्रा, छंद, शब्दों  की  पुनरावृत्ति की रहे तो गलत ही हुई न। (१२/५ ) सुरेंद्र 
अब कोई  छोटा बच्चा है बिलकुल ही छोटा बतियाना तो क्या सिर्फ हंसना और रोना ही जाना है अभी तो क्या मात्राएँ गिन-गिन रोए या हँसे ? ऐसे ही हमारे देश के लाखों युवा हैं जो सरकारी नीतियों के मारे - न हिंदी जानते हैं, न अंगरेजी ठीक-ठाक तो क्या अपनी विरासत से वह कभी न जुड़ेंगे ? अपनी भावनायें भी कभी न बता पाएंगे, गूंगे ही रह जाएंगे -बस रोटी कमाते खाते। या तुम्हारी डांट के अंगूठे के नीचे सिसकें के उम्रः भर तुम्हरी झड़की खाएंगे कि - सही न लिखा, मात्राएँ पूरी नहीं हैं ? इससे अच्छा है कहने दीजिए उन्हें जो वह कहना चाहते हैं ,सुन लीजिए  उनकी।  माना वो हिंदी व्याकरण नहीं पढ़े हैं मगर धीरे-धीरे रूचि जगाइए।  उन्हें छापिए।  क्या हर्ज है ? शुद्धता  का  भय  हैं  न।  तो क्या शुद्धता  बचा ली  अब  तक  चीजों  में।  सम्प्रेषण तो होने दीजिए।  मात्राएँ फिर ठीक कर लेना या समझा लेना उनको। मगर ऐसा नहीं होता। सभी सयाने अकड़ में, अध्यापक गिरी में, मास्टर बने बैठे हैं कि  ऐसा  ही  लिखो ? हम  जो  कह  रहे  हैं न  बस  वैसा  ही  ठीक  है।  नया नहीं।  अभी  कुछ  सम्पादक हैं (जो सन ८० में ही जी रहे हैं ) अप्रकाशित रचना ही चाहिए।  तो  क्या  मानदेय  देते  हैं।  नहीं  जी। कितना सर्कुलेशन है ? कौन पढ़ता है ? तो जवाब - सिफर! तो क्या लेखक को खरीद लिया है, अहसान करते हैं उसपर ? कि  वह  आपके लिए बैठकर लिखेगा ? अरे रचना अच्छी  है तो जाने दीजिए प्रेस में। मगर नहीं बेकार की, पुरानी परिपाटी की अकड़ -फूं, रुकावट  बिना मतलब  यहां  भी , जैसी  मात्राओं को लेकर।  (१५/५ ) सुरेंद्र  अब  एक नया चलन, नयी बीमारी और चली है साहित्य में  - यारी,रिश्तेदारी, व्यवसायिकता, सामाजिकता निभाने की।  या यूँ कह लें -तू मेरी पीठ खुजाता रह मैं तेरी पीठ खुजाता रहूंगा, तू मेरी वाह... वाह कर तो ही मैं तेरी करूंगा और भूल कर भी पूछना या  समझना मत कि  मैनें क्या लिखा ? किस स्तर का लिखा ? और न मैं तुमसे जानूँगा-पूछूंगा कभी।  और यह वाह...वाह  क्लब जो हैं न -अपार हैं और बढ़ते ही जा रहे हैं।  अब साहित्य  का स्तर ? हें..हें ...हें।  नास ही पीट दिया गया है।  जानता-बूझता  कोई नहीं, दिमाग लगाता यहाँ कोई नहीं मगर -तेरी भी वाह....वाह, मेरी भी वाह.... वाह। ....और किसी ने पूछ लिया, टोक दिया,रोक दिया या आलोचना ही कर दी  तो सबका मूड आफ ! नासमझ है ! बाहर करो इसे अपने गुट से।  उतारो  अपने शिप से।   अब मजा  है न इसमें  सभी  को  यानि दोनों ही महान ! लिखने और पढ़ने वाले दोनों की मूर्खता छिप जाती है और सामाजिकता भी  निभ  जाती  है, अच्छे से , तो  यह  है  साहित्य का  भाई भतीजा वाद ! (१६/५) सुरेंद्र   
अब हम पुनः वापिस लौटते हैं वहां - जहाँ से छंद मुक्त कविता  याकि आधुनिक कविता की  शुरुआत हुई थी।  निराला जी  हिंदी में छंदबद्ध कविता लिखा करते थे फिर अपने जीवन के कुछ अरसे उन्हें बंगाल में रहना हुआ जहाँ बँगला में छंद रहित या छंद मुक्त कविता अरसे से लिखी जा रही थी।  खैर ! वहाँ तो यह पुरानी परम्परा ही थी जिससे प्रभावित होकर निराला जी ने सर्वप्रथम हिंदी में इस छंद को आजमाया याकि लिखा तब उनके समकालीन आलोचकों ने कई व्यंग्यात्मक टिप्पणियां की और इसे केंचुआ छंद  और रबर छंद  तक  कह  डाला।  मगर  निरालाजी  मस्त होकर इसमें अपनी रचनाएँ लिखते ही गए।  फिर ओर कवि भी प्रभावित होकर जुड़े और इसको विस्तार और महत्व मिला। (१७/५ ) सुरेंद्र 
 इस छंद में ? जी हाँ ! छंद में (क्योंकि यह भी एक प्रकार का अगली पीढ़ी का छंद माना गया है) एक निराली, गहन या अंदरूनी बात यह है कि इसकी रीढ़ में भी एक तरह की लय,रागात्मकता, रिद्धम याकि लहर हमेशा रची-बसी होती है जो इसे कविता बनती है और इसे गद्यांश से अलग पद्यांश का रुतबा दिलाती है। जिसकी ओर अधिकांश (९०-९५) प्रतिशत कवियों, लेखकों का ध्यान कम ही जाता है यानि यह रसतत्व उनके पकड़ में ही नहीं आता याकि उनकी सोच से परे या पहले ही छूट जाता है और जैसे  पद्यांश में भी तुकें भेड़ी जाती हैं (जिनका अमूमन कविता में कोई  महत्वपूर्ण स्थान नहीं होता ) वैसे ही  गद्यांश रूपी स्तरहीन तुकें लिखते चले जाते हैं, उसे  आधुनिक  कविता  या विचार कविता मानकर। उनका  उस  रीढ़ से, उस लहर से,उस आनंद से या तो वास्ता ही नहीं पड़ा या वैसा आनंद पाठकों को दे पाना उनके बस की बात नहीं। अब आप सभी जानते हैं कि पद्यांश तुकें मजलिसों में, महफिलों  में कोरी  वाह... वाही बटोरने के काम ही आती है वे कोई गंभीर साहित्यिक रचना नहीं मानी जाती तो  गद्यांश तुक को भला आप कितना संभालेंगे ?
अब अगर बात फिर आ टिकी है उधाहरणो पर तो मेरा  वही  उत्तर  है  कि  सैकड़ों बिखरे पड़े हैं और मुझे कोई युद्ध नहीं लड़ना है। (१८/५) सुरेंद्र 














Monday, May 8, 2017

बेकार एक दियासलाई !

तुमने !
अपनी आस,
अपनी जीवन के प्रकाश को
रोशनी को कहीं खो दिया है।
माना कि
जीवन के उजालों में/मौज मस्ती में
वह  तुम्हारे किसी काम नहीं आती थी
सिर्फ तुम्हारे जेब/दिल में बेकार पड़ी रहती थी
 एक दियासलाई
या बीबी की तरह।
मगर, जीवन में अँधेरे होते ही
तुम्हारे लिए वह अपने आप को जलाकर भी
तुम्हारा पथ  तो  जगमगाती थी,
अँधेरे में तुम्हारे लिए
उजाले उगाती थी।
अहीशुं! फिर  भी तुम्हें वह बेकार लगी
और तुमने उसे अपने जीवन से हटा दिया.....
तुमने अँधेरे वक्त  में
उजाले खोदने का एक औजार,एक विचार
एक झटके में ही गंवा दिया .....

तुम समझो दियासलाई या बीबी
न  होने का अहसास
उसके न होने पर ही होता है-
जब  इंसान उजाले  को
उसके विदा हो जाने पर
अकेले अँधेरे कमरे में बैठकर
बुढ़ापे में  रोता है -
मगर, तब बीबी जैसा
उसके जीवन में
दियासलाई -सा
कुछ नहीं होता है।
             ------------            सुरेन्द्र भसीन

जो

जो
अपनी नालायकियत
किस्मत या किसी शारीरिक कमजोरी से
कमजोर पड़ जाता है
संघर्ष नहीं कर पाता है
अपनों में पीछे रह जाता है,
दौड़ में नीचे रह जाता है
अपनी सच्चाई या  सादगी की सजा पाता है,
संतोष नहीं कर पाता है
वही लड़ता है सदा....
अपनी खीझ उतारता
बेवजह बहस करता
तोड़ता है
टूटता ही जाता है  सदा ....
गालियाँ देता -खाता
कहना न मानता
चिल्लाता-शोर मचाता
नाराज भी रहता है सदा....
वो,  तुम भी हो
हो सकते हो बड़े,
छोटे बच्चे भी।

उसे सताओ मत,
उससे संवाद बैठाओ !
बच्चे /बड़े को
बचाओ !
                   --------------------           सुरेन्द्र भसीन


Tuesday, May 2, 2017

ऊँचे ओहदों वाले

ये जो
ऊँचे ओहदों पर बैठे हैं-
आप क्या समझते हैं ?
ये अपनी मर्जी से 
नाच-गा रहे हैं ?
अरे ! ये सब कठपुतलियाँ हैं,
व्यवस्था की मजबूरी में फंसे हैं 
ये  तो फंसी में
अपने हाथ-पाँव हिला रहे हैं। 

अंदर से विवशता की 
बीमारी से तिलमिला रहे हैं 
मगर ऊपर से
ख़ुश हो-हो कर दिखा रहे हैं।  

धन और ओहदे की ताकतवर 
विटामिन के सहारे अपना गुजारा 
चला रहे हैं।

नाक में तो नकेल पड़ी है 
तो हां में सिर हिला रहे है,
न नहीं कर पा रहे हैं। 

वैसे बोझ व अपमान से 
उनके कंधे, सिर और  आत्मा 
झुके  ही  जा रहे हैं। 

गुनाह उनके कितने हैं 
ये उनको भी नज़र आ रहे हैं 
मगर फिर भी ,
उन्ही खूनी हाथों से 
गुनाह  पर गुनाह करने  की
रिवायत  निभाते चले जा रहे हैं। 

तुम सोचते हो 
झुकना उन्हें आता नहीं 
मगर वे तो
पहले से  ही
जमीन में गड़े जा रहे हैं। 

छोड़ दो उन्हें, उन्हीं के हाल पर 
और रहम करो उनपर 
उनसे तो अपने फ़टे भी 
कहाँ सिले जा रहे हैं ?
(कि जो हम भी उनको सताने चले आ रहे हैं। )
             ----------                                          सुरेंद्र भसीन