Monday, March 28, 2016

शर्म से मैं गड़ जाता हूँ

जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते 
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?

ये फल-फूल या धूप-दीप, जब सब कुछ तो तेरा है तो 
क्या इन्हीं को अर्पित करने, मैं तेरे द्वारे आता हूँ ?

नहीं इनको चढ़ाने के बहाने मैं, खुद को तुम तक लाता हूँ।  
इसी बहाने अपने दैहिक दुख को मैं, तुमको  कहने  आता  हूँ। 



जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते 
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?
                        -------------           - सुरेन्द्र भसीन  

Tuesday, March 22, 2016

वो एक

वो एक 

जब भी, जब भी 
पासा फैंकता हूँ मैं 
कभी एक नहीं आता है..... ?

निन्यानवें पर 
खड़ा हूँ मैं। 
मगर एक नहीं आता है..... ?

मुझे उस एक का ही इंतज़ार है मगर 
वो एक नहीं आता है। 

वैसे  तो 
सारी उम्रह पासे पर 
एक   -एक ही आता रहा 
और मैं नासमझ उस एक से ही लड़ता रहा.... 
और एक-एक करके ही तो पहुंचा हूँ इस निन्यानवें तक 
मगर तब मैं एक के  महत्व को समझ नहीं पाता था
उस समय के मेरे रास्ते 
सीढ़ी और साँप से भरे रहे..... 
दो,तीन,चार, पांच और छह 
कभी न मिला मुझे 
साँपों से ही पड़ा वास्ता मेरा 
कभी भी सीढ़ी पर न चढ़ सका.....  
सीढ़ी के वास्ते मैंने 
अपने आपको जहरीले सांपों से भी डसवाया 
मगर फिर भी मेरे हिस्से में एक और सिर्फ एक ही आया। 

अब उम्रह के इस अंत में 
मैं समझ गया हूँ कि 
जब तक वो एक 
पहचान में नहीं आता है 
जीव अनेक नहीं हो पाता है..... 
.... लेकिन अब कैसा भय..... 
आँखें अब मुंदी जा रही हैं.... 
अब किसी साँप से बचाव नहीं 
और किसी सीढ़ी का लगाव नहीं....

अब तो 
उस एक के आते ही 
पूरे सौ हो जायेंगे/मेरी गोटी पुग जायेगी

अब तो 
केवल उस एक का ही इंतज़ार है 
कभी भी वो आयेगा 
और मुझे 
अनेक 
कर 
जायेगा..... 
            -----------            सुरेन्द्र भसीन  








Saturday, March 12, 2016

संतोष

संतोष 

सभी कुछ 
पाया नहीं जा सकता 
सभी कुछ 
खाया नहीं जा सकता 
सभी जगह जाया नहीं जा सकता.... 

सभी कुछ होता तो है मगर 
मिलता नहीं है किसी को 
जैसे रेल की समानांतर दो पटरियां.... 

लगातार होती
चलती 
मगर कहीं न मिलती 
जैसे....  
सभी कुछ 
          ------------        -सुरेन्द्र भसीन 








Friday, March 11, 2016

विरोधाभास

समझ नहीं आता 
जीवन कैसे-कैसे विरोधाभास दिखाता है 
और किधर से किधर को मुड़कर निकल जाता है 
कभी पानी में पत्थर 
और कभी पत्थरों से पानी निकल आता है। 

रुकता है पानी जहां 
सम्बन्धों का, हालातों का, मवाद का कीचड़ जमा हो जाता है 
और क्रोध का उफनता पानी नहीं
कीचड़ बना रुका पानी ही सम्बन्धों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है 

नीर हो या नाता हो 
कल-कल करता शीतल-शीतल 
बहता हुआ ही 
सदा भाता है। 
                    -------------                -सुरेन्द्र भसीन 


Monday, March 7, 2016

जन्म

अनेकानेक 
भावनाओं, उत्तेजनाओं और छटपटाहटों  
के स्फुरित हो जाने पर 
देह में नीचे बहुत नीचे 
पुकेसर(पुरुष केसर) जड़ें जमता। 

वक़्त आने पर 
चाहतों-अरमानों की देह धरता 
फूल बन उबर आता -
शिशु कहलाता। 
             ----------                           -सुरेन्द्र भसीन