Thursday, November 22, 2018

वैमनस्य

वैमनस्य

हमारी स्वयं की
मिट्टीकी, गुस्से की
गठानें ही होती हैं वैमनस्य।
न जानें कैसी रूकावटें,सलवटें हैं
यह हमारे व्यक्तित्व की
जो सरल जीवन प्रवाह को
करती हैं अवरुद्ध!
और प्रेम ऊष्मा पाकर
हो जाती हैं विभोर!
जैसे घी या बर्फ पिघलता ही जाता है
ताप पा..पाकर।
प्रेम प्रवाह के आवेग से ही
वर्षों से रुकी सम्बन्धों की नदियाँ
फिर ...फिर बह पाती हैं
वरना दुरुह चट्टाने
ही हो जाती हैं।
       ------   सुरेन्द्र भसीन

समाज हमारा

हम जिसे
प्रेम कहते हैं न!
बहुतों के लिए कुछ नहीं है
वासना के सिवाय...
जिम्मेवारी रहित भोगने की एक प्रक्रिया
उलीचना-उलटना मात्र...
दिनभर की समाज से इकठ्ठी हुई
सड़ांध उतारने का प्रयास...
क्या किसी काम आता है?
महज काई कीचड़ जमा काला बदबूदार पानी..
सामाजिक परनाले में बहने
आ जाता है...
संतान, औलाद कहलाता है
यूँ ही आने वाले
रीढ़ विहीन समाज का
निर्माण होता जाता है।
       -------    सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, November 20, 2018

मरने से पहले

मरना तो
होता है हरेक को बारबार
चीख-चीख कर मरो या
मरलो बेआवाज़
मरो अपना अकेले या
मरो लोगों के ही लिए
लोगों के साथ...
अब कोई
कहर नहीं टूटता
न होती है कांच टूटने की तीखी ध्यानाकर्षक आवाज...
क्योंकि बाकी सब
अपनी जरूरतों-स्वार्थों में
मर चुके हैं पहले ही
कई कई बार...।
      -------    सुरेन्द्र भसीन. मरने से पहले