'ममता के आँसू' - कहानी
सुबह का समय था। आराम कुर्सी पर बैठा मैं चाय के साथ अखबार की सुर्खियाँ निगल रहा था। सामने मेरी आठ वर्षीय मुन्नी सोई थी और पत्नी सुलेखा रसोई में दिनचर्या निभा रही थी। उनदिनों मेरी इस शहर में अभी नयी बदली ही हुई थी। शहर और मैं एक-दूसरे से अजनबी, अभी आत्मालाप में डूबे थे।
तभी मिलाप की पहली कड़ी आ पहुंची। धड़धड़ाती हुई, बिना देखे, बिना सोचे, बिना जाने और समझे उसने अपना डायलॉग बोला -
"बीबीजी ! बीबीजी ! सब्जी लीजिएगा ? आलू,टिंडे, टमाटर, प्याज, गोभी....! सब कुछ बिल्कुल ताजा है,एकदम फर्स्टक्लास। देखिए न नहीं कीजिएगा। बसंती ऐसे नहीं जाने की। पूरी पचास सीढ़ियाँ चढ़ी है आप तक सब्जी पहुँचाने के लिए। "
आवाज सुन पत्नी भी कमरे में आ पहुँची थी। दोनों चकित दृष्टि से उसे देखने लगे थे। हम कुछ बोलते उसने अपना डायलॉग बढ़ाया -
"आलू एक रुपए, टिंडे डेड रुपए। रेट किलो के बताए हैं पर बसंती सब्जी तोलेगी किलो और सौ ग्राम। "
वह न जाने क्या-क्या बोलती और कब तक बोलती चली जाती अगर मैंने उसे टोका न होता तो -
"बस-बस जरा धीरे बोलो। देखती नहीं मुन्नी सो रही है। "
उसके शेष शब्द मानो गले में ही अटक कर रह गए। थोड़ी सहम गयी और विस्फारित नेत्रों से कमरे में मुन्नी को ढूंढने लगी। मुन्नी पर नजर पड़ते ही फ़टाक-से उसने अपना टोकरा फर्श पर पटक दिया। भाग के मुन्नी के पास जा पहुँची। मुन्नी के सिरहाने घुटनों के बल बैठकर वह बड़े वातसल्य से निहारने लगी। बड़े प्यार-से उसने मुन्नी के सिर पर हाथ फेरा। उसके मन की खुशी आंखों से टपक रही थी जिसने बाद में आंसुओं का रूप ले लिया, उसकी आँखों के कोर जो भीगने लगे।
अत्यंत धीमी व कोमल आवाज़ में उसने मुझसे पूछा -"बाबूजी ! मैं मुन्नी को गोद में ले लूँ ?"
मैं कुछ कहता तभी माँ की ममता बोल उठी -
"नहीं ! नहीं ! तुम्हारे उठाने से उसकी नींद खुल जाएगी। " मेरी पत्नी बोली थी।
"बीबीजी ! मैं इसे बड़े आराम से उठा लूंगी। "
और उत्तर मिलने से पहले ही उसने मुन्नी को गोद में उठा भी लिया। अजीब-सी चमक थी उसके चेहरे पर। एक सुदीर्घ सुख की पीड़ा से उसका रोम-रोम सम्मोहित हो चुका था। वह भूल चुकी थी मुझे, मेरी पत्नी को। अपने आपको और मानव द्वारा रचित कृत्रिम वातावरण को। वह पहुंच चुकी थी दूर वातसल्य रस के बादलों पर सवार हो अनंत में। हम जानते थे, ऐसा संतोष तो हम उसे हीरों से भी न दे पाते। सो, हमने भी अपनी उपस्थिति को नकार लिया था कुछ पल के लिए।
"बसंती तुम तो ऐसा कर रही हो जैसे ये मुन्नी तुम्हारी अपनी हो या फिर याद आ गई हो तुम्हें भी अपनी मुन्नी की। "
सुख का चरमोत्कर्ष दुख के आगमन का सदैव द्योतक होता है यह प्रकृति का नियम है, ऐसा मैंने सुना था। प्रत्यक्ष इस सूक्ति का पता तब चला जब बसंती की सिसकियों से कमरा गूंजने लगा।
उसने मुन्नी को पलंग पर लिटा दिया और घुटनों में मुँह देकर रोने लगी। हमारी हिम्मत न हो सकी कि बिना बात जाने उसे किसी प्रकार का दिलासा दे सकें। बात जानने के लिए हम मूर्तिवत उसका रोना सुन-देख रहे थे। मैं तो कुछ भी करने, सोचने, समझने की स्थिति से परे था। आखिर मेरी पत्नी ने ही धीमे स्वर में पूछा -"क्या हुआ ?"
पहले तो वह बताने को तैयार न थी। लेकिन बहुत कहने पर उसने जो थोड़ा-बहुत बताया वह उसका दुख जानने और औरों तक पहुँचाने के लिए काफी था।
उसने कहना शुरू किया -"बीबीजी! मुझे मेरी मुन्नी की याद आ गयी थी। जिसे मुझे इन हाथों से, हालातों से मजबूर होकर जहर देना पड़ा था। वह भी बिल्कुल ऐसी ही थी। कोमल, व इसी उम्रः की। मगर समाज के रीति-रिवाजों की भयानकता उसे खा गयी। "
"बात आज से सात-आठ साल पहले की है। मेरी शादी को पांच-छ साल हो चुके थे। घर में मैं,मेरा पति, मेरी सास और हमारे दो बच्चे लड़का और लड़की रहते थे। घर में गरीबी होने के बाद भी गरीबों की सम्पत्ति "संतोष" घर में थी। उस समय मैं फूल बेचा करती थी। पति मजदूरी करते, तभी दो वक़्त की रोटी नसीब हो पाती। तभी घर में एक ओर लड़की का जन्म हुआ। लड़की के जन्म होते ही मेरी सास और पति को जैसे सांप सूंघ गया। दोनों का रवैया ही बदल गया था। मुझे लांछन, डांट-फटकार और गालियाँ मिलनी शुरू हो गईं। मेरी सास चाहती थी कि यह बच्ची खत्म कर दी जाए लेकिन मुँह से कहने में झिझकते थे।
एक दिन मेरी सास ने कह ही दिया कि लड़की पराया धन होती है। हम गरीब हैं। उसके पालने,खाने-पिलाने में बड़ी मुश्किल होगी। इतने चककरों से अच्छा है कि कुछ ऐसा कर कि न रहे बांस न बजे बांसुरी। मगर मैं न मानी। मानती भी कैसे ? आखिर माँ थी। सास ने फिर कहा कि तुम्हारे पास एक लड़की है तो सही, भला दूसरी क्या करेगी ?
बस, उस दिन से मुझे उठते-बैठते, आतेजाते यही सीख दी जाने लगी कि इसे मार डाल....मार डाल इसे। मेरी रातों की नींद, सुख-चैन सब कुछ समाप्त हो चुका था। रात-दिन इसी बारे में सोचती लेकिन अपनी बच्ची को कोई माँ कैसे जहर दे ? मुझे अपने पति का अभी सहारा था क्योंकि उन्होंने मुझे कुछ न कहा था लेकिन शिकन तो उनके चेहरे पर भी रहती थी। न ठीक से बात करते, न ठीक से खाते-पीते। और, फिर एक दिन उन्होंने भी मुझे कह दिया कि मैं वही करूं जो मुझे सासु कह रही है।
उस दिन मैं पूरी तरह टूट गई। मैंने उनके सामने बहुत हाथ-पाँव जोड़े पर उन पर असर न हुआ। एक-दो बार मुझे घर से बाहर निकल जाने के लिए भी कह दिया गया।
और फिर, एक दिन जब घर पर कोई न था। मैंने दूध में जहर मिलाया और मुन्नी को पिलाने लगी। ....बहुत कोशिश की। पर न पिला सकी। जैसे ही पिलाने को होती, ऐसा लगता मानो मुझे बड़े जोर से उल्टी आ रही हो। मैंने मुन्नी को बैठाया और दूध की कटोरी उसके सामने रख कर बिना पिलाए चली आई।
आज तक मुझे पता नहीं चला कि मुन्नी का क्या हुआ ?
अब सोचती हूँ कि अगर घर छोड़ना ही था तो बच्चों को भी साथ ले आती।
मुन्नी को तो जरूर ही लाना था। लेकिन अब क्या हो ?"
पूरी कहानी कहते-सुनाते वह कितना रोई व कितनी बार रोई मैं गिन न सका..... ।
------------------------ -सुरेन्द्र भसीन
सुबह का समय था। आराम कुर्सी पर बैठा मैं चाय के साथ अखबार की सुर्खियाँ निगल रहा था। सामने मेरी आठ वर्षीय मुन्नी सोई थी और पत्नी सुलेखा रसोई में दिनचर्या निभा रही थी। उनदिनों मेरी इस शहर में अभी नयी बदली ही हुई थी। शहर और मैं एक-दूसरे से अजनबी, अभी आत्मालाप में डूबे थे।
तभी मिलाप की पहली कड़ी आ पहुंची। धड़धड़ाती हुई, बिना देखे, बिना सोचे, बिना जाने और समझे उसने अपना डायलॉग बोला -
"बीबीजी ! बीबीजी ! सब्जी लीजिएगा ? आलू,टिंडे, टमाटर, प्याज, गोभी....! सब कुछ बिल्कुल ताजा है,एकदम फर्स्टक्लास। देखिए न नहीं कीजिएगा। बसंती ऐसे नहीं जाने की। पूरी पचास सीढ़ियाँ चढ़ी है आप तक सब्जी पहुँचाने के लिए। "
आवाज सुन पत्नी भी कमरे में आ पहुँची थी। दोनों चकित दृष्टि से उसे देखने लगे थे। हम कुछ बोलते उसने अपना डायलॉग बढ़ाया -
"आलू एक रुपए, टिंडे डेड रुपए। रेट किलो के बताए हैं पर बसंती सब्जी तोलेगी किलो और सौ ग्राम। "
वह न जाने क्या-क्या बोलती और कब तक बोलती चली जाती अगर मैंने उसे टोका न होता तो -
"बस-बस जरा धीरे बोलो। देखती नहीं मुन्नी सो रही है। "
उसके शेष शब्द मानो गले में ही अटक कर रह गए। थोड़ी सहम गयी और विस्फारित नेत्रों से कमरे में मुन्नी को ढूंढने लगी। मुन्नी पर नजर पड़ते ही फ़टाक-से उसने अपना टोकरा फर्श पर पटक दिया। भाग के मुन्नी के पास जा पहुँची। मुन्नी के सिरहाने घुटनों के बल बैठकर वह बड़े वातसल्य से निहारने लगी। बड़े प्यार-से उसने मुन्नी के सिर पर हाथ फेरा। उसके मन की खुशी आंखों से टपक रही थी जिसने बाद में आंसुओं का रूप ले लिया, उसकी आँखों के कोर जो भीगने लगे।
अत्यंत धीमी व कोमल आवाज़ में उसने मुझसे पूछा -"बाबूजी ! मैं मुन्नी को गोद में ले लूँ ?"
मैं कुछ कहता तभी माँ की ममता बोल उठी -
"नहीं ! नहीं ! तुम्हारे उठाने से उसकी नींद खुल जाएगी। " मेरी पत्नी बोली थी।
"बीबीजी ! मैं इसे बड़े आराम से उठा लूंगी। "
और उत्तर मिलने से पहले ही उसने मुन्नी को गोद में उठा भी लिया। अजीब-सी चमक थी उसके चेहरे पर। एक सुदीर्घ सुख की पीड़ा से उसका रोम-रोम सम्मोहित हो चुका था। वह भूल चुकी थी मुझे, मेरी पत्नी को। अपने आपको और मानव द्वारा रचित कृत्रिम वातावरण को। वह पहुंच चुकी थी दूर वातसल्य रस के बादलों पर सवार हो अनंत में। हम जानते थे, ऐसा संतोष तो हम उसे हीरों से भी न दे पाते। सो, हमने भी अपनी उपस्थिति को नकार लिया था कुछ पल के लिए।
"बसंती तुम तो ऐसा कर रही हो जैसे ये मुन्नी तुम्हारी अपनी हो या फिर याद आ गई हो तुम्हें भी अपनी मुन्नी की। "
सुख का चरमोत्कर्ष दुख के आगमन का सदैव द्योतक होता है यह प्रकृति का नियम है, ऐसा मैंने सुना था। प्रत्यक्ष इस सूक्ति का पता तब चला जब बसंती की सिसकियों से कमरा गूंजने लगा।
उसने मुन्नी को पलंग पर लिटा दिया और घुटनों में मुँह देकर रोने लगी। हमारी हिम्मत न हो सकी कि बिना बात जाने उसे किसी प्रकार का दिलासा दे सकें। बात जानने के लिए हम मूर्तिवत उसका रोना सुन-देख रहे थे। मैं तो कुछ भी करने, सोचने, समझने की स्थिति से परे था। आखिर मेरी पत्नी ने ही धीमे स्वर में पूछा -"क्या हुआ ?"
पहले तो वह बताने को तैयार न थी। लेकिन बहुत कहने पर उसने जो थोड़ा-बहुत बताया वह उसका दुख जानने और औरों तक पहुँचाने के लिए काफी था।
उसने कहना शुरू किया -"बीबीजी! मुझे मेरी मुन्नी की याद आ गयी थी। जिसे मुझे इन हाथों से, हालातों से मजबूर होकर जहर देना पड़ा था। वह भी बिल्कुल ऐसी ही थी। कोमल, व इसी उम्रः की। मगर समाज के रीति-रिवाजों की भयानकता उसे खा गयी। "
"बात आज से सात-आठ साल पहले की है। मेरी शादी को पांच-छ साल हो चुके थे। घर में मैं,मेरा पति, मेरी सास और हमारे दो बच्चे लड़का और लड़की रहते थे। घर में गरीबी होने के बाद भी गरीबों की सम्पत्ति "संतोष" घर में थी। उस समय मैं फूल बेचा करती थी। पति मजदूरी करते, तभी दो वक़्त की रोटी नसीब हो पाती। तभी घर में एक ओर लड़की का जन्म हुआ। लड़की के जन्म होते ही मेरी सास और पति को जैसे सांप सूंघ गया। दोनों का रवैया ही बदल गया था। मुझे लांछन, डांट-फटकार और गालियाँ मिलनी शुरू हो गईं। मेरी सास चाहती थी कि यह बच्ची खत्म कर दी जाए लेकिन मुँह से कहने में झिझकते थे।
एक दिन मेरी सास ने कह ही दिया कि लड़की पराया धन होती है। हम गरीब हैं। उसके पालने,खाने-पिलाने में बड़ी मुश्किल होगी। इतने चककरों से अच्छा है कि कुछ ऐसा कर कि न रहे बांस न बजे बांसुरी। मगर मैं न मानी। मानती भी कैसे ? आखिर माँ थी। सास ने फिर कहा कि तुम्हारे पास एक लड़की है तो सही, भला दूसरी क्या करेगी ?
बस, उस दिन से मुझे उठते-बैठते, आतेजाते यही सीख दी जाने लगी कि इसे मार डाल....मार डाल इसे। मेरी रातों की नींद, सुख-चैन सब कुछ समाप्त हो चुका था। रात-दिन इसी बारे में सोचती लेकिन अपनी बच्ची को कोई माँ कैसे जहर दे ? मुझे अपने पति का अभी सहारा था क्योंकि उन्होंने मुझे कुछ न कहा था लेकिन शिकन तो उनके चेहरे पर भी रहती थी। न ठीक से बात करते, न ठीक से खाते-पीते। और, फिर एक दिन उन्होंने भी मुझे कह दिया कि मैं वही करूं जो मुझे सासु कह रही है।
उस दिन मैं पूरी तरह टूट गई। मैंने उनके सामने बहुत हाथ-पाँव जोड़े पर उन पर असर न हुआ। एक-दो बार मुझे घर से बाहर निकल जाने के लिए भी कह दिया गया।
और फिर, एक दिन जब घर पर कोई न था। मैंने दूध में जहर मिलाया और मुन्नी को पिलाने लगी। ....बहुत कोशिश की। पर न पिला सकी। जैसे ही पिलाने को होती, ऐसा लगता मानो मुझे बड़े जोर से उल्टी आ रही हो। मैंने मुन्नी को बैठाया और दूध की कटोरी उसके सामने रख कर बिना पिलाए चली आई।
आज तक मुझे पता नहीं चला कि मुन्नी का क्या हुआ ?
अब सोचती हूँ कि अगर घर छोड़ना ही था तो बच्चों को भी साथ ले आती।
मुन्नी को तो जरूर ही लाना था। लेकिन अब क्या हो ?"
पूरी कहानी कहते-सुनाते वह कितना रोई व कितनी बार रोई मैं गिन न सका..... ।
------------------------ -सुरेन्द्र भसीन
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