Wednesday, August 2, 2017

'आख़िरी बयान ' - कहानी

'आख़िरी बयान ' -    कहानी 

"मैं ईश्वर को हाज़िर-नाजिर मानकर आपको यह बयान लिखा रहा हूँ कि मैंने स्वयं अपनी इच्छा से व अपने होशो-हवास में आत्महत्या करने की कोशिश की।  जी हाँ! यह खंजर मैंने अपने हाथों से अपने सीने में घुसेड़ा।एक खंजर का दर्द लेकर मैंने कई खंजरों के दर्द से मुक्ति पा ली। मरने से पहले आदमी कितना मरता है, उस यातनामयी मौत से घबराकर मैंने यह मौत चुन ली।  आप इस खंजर को खूनी खंजर कह सकते हैं। लेकिन मेरे लिए यह एक मुक्ति दाता है। "
               उसको बहकते देखकर मैंने उसे टोक दिया - "जनाब !अपने  बयान को संक्षिप्त रखें, ज्यादा बात न बढ़ाते हुए, छोटे-से-छोटा बयान लिखाएँ। "
         मेरे इतना कहने पर उसे जैसे अपनी गल्ती का अहसास हो गया।  वह थोड़ा रुका और कुछ सोचने लगा।  मानों वह बात के टूटे सूत्र को फिर से जोड़ना चाहता हो।  उसने आगे कहना शुरू किया -
"मेरा  पाक़िस्तान में (भारत विभाजन से पूर्व) चाकू-छुरियों का काम था।  वहाँ भी घरेलु हालात अच्छे नहीं थे।  इसी बीच भारत-पाक विभाजन हुआ।  मुझे अपना सभी कुछ वहीँ छोड़कर भागना पड़ा।   भाग-दौड में मेरी पत्नी कहाँ छूटी, उसके बाद क्या-क्या हुआ, मुझे पता नहीं।  वे दिन और आज का दिन मुझे मेरी पत्नी न मिली। 
             मैंने टोका - "एक प्रश्न करना चाहूँगा कि जो इस समय आपके साथ है, वह आपकी कौन है ?"
        "इंस्पेक्टर मुझे टोको नहीं।  मेरे कुछ क्षण ही मेरे पास हैं।  मुझे बात कह लेने दो।  हाँ ! तो यहाँ आकर मैंने दुसरी शादी कर ली।  अब जो मेरे साथ है वह मेरी दुसरी पत्नी है। संतान सुख मुझे कभी न मिला।  शादी तो कर ली पर खाने को एक भी दाना न था।  काफी दौड़-भाग करी काम खोजने के लिए, लेकिन कहीं काम न मिला।  बीमारी थी कि बढ़ती ही जा रही थी।   आखिर तंग आकर मैंने भट्टी के सामने बैठकर पकौड़े तलने का काम शुरू किया।  टी.बी. का मरीज और फिर आग के सामने बैठकर पकौड़े तलना दिनभर।  कब तक मैं भट्टी में पकौड़ों के साथ पकता ।  महीने भर में ही मैंने चारपाई पकड़ ली। खाने को तो था नहीं,फिर भला दवा-दारू के लिए पैसे कहाँ से आते।  मेरी पत्नी की उम्र अभी काफी कम है। होगी कोई बाईस-तेईस साल।  उस बेचारी को भी मैं कुछ न दे सका, सिवाए दुखों के।  उसकी आयु को देखकर मैं यही सोचता रहता क्योंकि मैं तो अब कुछ दिन का मेहमान था। लेकिन उसका पहाड़-सा जीवन और यह बेदर्द जमाना।  मुझे हर पल यह अहसास रहता कि मैंने इसकी जिंदगी बर्बाद कर दी।  मैं सब तरफ से चिंता में घिर चुका था। बहुत सोचा और आखिर हिम्मत करके मैंने अपनी पत्नी से कहा कि तू कहीं और चली जा, नयी शादी रचा ले, किसी और के साथ घर बसा ले।  यह सब सुनकर रोने लगी, न  मानी।  मैंने कई बार कहा, बार-बार  कहा, बहुत समझाया लेकिन यह कहीं भी न गई।  मैं और...और चिंता में घुलने लगा. उस समय तक अपने-आप को मुक्त महसूस नहीं कर सकता था जब तक कि मैं इसका कुछ इंतजाम न कर लेता।  यह चिंता ही है जिसने मुझे इस चिता पर ला पटका।  आखिर मैंने अपनी चिताओं का समाधान चिता को ही समझा।  मैंने तय किया कि अब मुझे अपना जीवन समाप्त कर लेना चाहिए। 
               ...और आज मैंने अपना छुरा उठाकर अपने सीने में मार लिया। यही मेरी सभी समस्याओं का समाधान था।  अब मेरी आखिरी इच्छा यही है कि मेरी पत्नी दुसरी शादी कर ले।   शायद मेरी मौत भी रुकी थी, चाहती होगी कि मैं अपना बयान देता जाऊं। इच्छा यही है। 
                कुछ समय बाद ही उसने अपने प्राण त्याग दिए।  मैंने आज जाना कि कोई क्योंकर आत्महत्या करने के लिए तैयार या मजबूर होता है - केवल उस स्थिति में जब उसके जीने में उसकी उसकी ज्यादा मौत हो और मरने में कम।   दर्दों, अभावों में जीने से कहीं अच्छा वह एक बार में  किस्सा खत्म करना चाहता हो।  मैंने आज जाना कि मानव नियति के हाथों कितना मजबूर और लाचार है। 
                        -------------------                  -सुरेन्द्र भसीन 




























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