Saturday, May 28, 2016

बादल के पार

बादल के पार

हल्का होकर
हवा के साथ-साथ
उमड़ते-घुमड़ते
मैं थकान व चिन्ता के पहाड़
दूर, नीचे कहीं छोड़ आया हूँ ...

अब मेरे सामने
सारा नीला आकाश है मिलने के लिए
सदा-सदा के लिए
उसमें घुलने के लिए।
     ---------     सुरेन्द्र भसीन 

Saturday, May 21, 2016

आजादी

चारों ओर
ऊँची, बहुत ऊँची काँच की 
दीवारें हैं उठीं हुईं... 
जब  भी  उड़ता  हूँ
उनसे ही टकराकर 
फड़फड़ाकर नीचे गिर जाता हूँ। 

लाख चाहकर भी 
इनसे मुक़्त हो बाहर नहीं निकल पाता हूँ। 

रोशनी को  देखता तो हूँ 
उसकी छुअन नहीं पाता हूँ...  
उसके अहसास को समझता तो हूँ 
मगर तरसता ही रह जाता हूँ ... । 

छोड़ दो
खोल दो मुझे 
मैं तो उन्मुक्त उड़ना चाहता हूँ
उड़ते ही जाना चाहता हूँ 
रोशनी को, हवा को 
प्रकृति भरे आकाश को 
सीधे ही पाना चाहता हूँ .... 
उसमें  ही समा जाना चाहता हूँ। 
              --------           सुरेन्द्र भसीन  









Thursday, May 12, 2016

मेरी मजदूरी /मेरी मजबूरी

मेरी मजदूरी /मेरी मजबूरी

जब से
सिर पर रखी है नौकरी की टोकरी
यह मुझे रास आने लगी है या पता नहीं
उसकी थकन ही नस-नस से होती हुई
मेरे तलुवों में नाल-सी समा गई है क्योंकि
अब मैं
रात  को
सोते-सोते भी हाँ..जी ! हाँ..जी ! करता हूँ ।
और दिन में
आते-जाते हर कुत्ते-बिल्ली तक को सलाम करता हूँ। 

मेरी पुरानी आज़ादियाँ
देह छोड़ दूर खड़ी
मुझ पर हंसती हैं
और नयी लागू पाबंदियाँ
मेरे कराहने तक
दिन-भर मेरे नट-बोल्ट कसती हैं।

मानता हूँ मैं
कि मेरा यह दुख
देह का उतना नहीं जितना कि मानसिक है....

कितनी बार मैंने
जबरदस्ती इससे छुटकारा पाया भी है
मगर फिर मैं बाद में स्वयं ही
किसी काम को, सामाजिक मान्यता को व  किसी व्यस्तता को तरसता हूँ
और क्या करूं
थक  हारकर, मजबूर होकर
इस नाचाही व्यवस्था में आ धंसता हूँ।
                    --------------                       सुरेंद्र भसीन








Saturday, May 7, 2016

आकार

आकार

यह
मैं, तुम  या
सारी फ़ैली-फलती कायनात नहीं
जर्रे-जर्रे में
कण-कण में
पल-प्रतिपल समय ही फल-फूल रहा है।

समय ही
जब बड़ा पूरा हो जायेगा
तो टूट कर, गुणांक होकर
पुनः जर्रे... जर्रे में,
कण-कण में
प्रदार्थ रूप लेता जायेगा......
सृष्टी बन जायेगा......
फिर महाकाल कहलायेगा......
                  --------                    सुरेन्द्र भसीन