Friday, February 19, 2016

ग़ज़ल -३

अपने कलेजे में दर्द दफ़ना रखा है
मैंने सीने को कब्रगाह बना रखा है। 

न जाने कौन-कौन सा गम पड़ा है यहाँ 
अपनी ही याद को कफ़न ओढ़ा रखा है। 

गम भी झर-झर कर बहता हो जहाँ 
वहीं  प्रेम का अलाव सुलगा रखा है। 

चाहत, राहें, नदियाँ सूख जाती हैं जहाँ पर 
वहीं पर मैंने हसरतों का बाग़ बसा रखा है। 

तक़दीर के कुछ मायने नहीं  हैं मेरे लिये 
मैंने तो किस्मत को अंगूठा दिखा रखा है। 

कौन करेगा कुफ्र मुझ से प्रेम करने का 
मैंने तो आईनों को मुँह चिढ़ा रखा है। 
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Saturday, February 13, 2016

तीसरा नेत्र/नीति

सरहद पार से 
दुश्मन ने यह भांप लिया है कि 
यह भावना प्रधान देश है, 
यहाँ हवा में चारों ओर भावनाएँ ही बहती हैं, 
लोगों की नस-नस में भावनाएँ ही घुली रहती हैं इसलिए 
वह इन्हीं पर चुन-चुन कर वार करता है और 
हम विचलित होकर उसकी नीच हरकतों का अनुसरण करने लगें 
इसी का बेसब्री से इंतजार करता है।   
वह चाहता है हम उसी जैसा आतंकी व्यवहार करें -
उसी की तरह वैमनस्य बोएँ, हिंसा काटें, हथियारों का व्यापार करें,
और उसी के पीछे चलते-चलते उसके ही सपनों को साकार करें। 

मगर अपने संस्कारों, पूर्वजों की शिक्षाओं को ध्यान में रखकर 
हमें अपना सय्यम नहीं खोना है- 
हमें एकजुट होकर, उसकी नीचता का प्रतिकार करना है, 
उसको विश्व परिदृश्य में अलग-थलग करके,
उसका बहिष्कार करना है।              -सुरेन्द 









Friday, February 12, 2016

ग़ज़ल-2

"कभी-कभी प्रसिद्ध होना महान होना नहीं होता 
अनेकानेक बार प्रसिद्ध होने के लिए महानता को 
त्यागना पड़ता है फिर चाहे जातक प्रसिद्धि से 
महानता को प्राप्त कर जाये।"        - सुरेन्द्र 

वी - डे मैं नहीं मानता-मनाता लेकिन इन दिनों मौसम में 
ऐसा कुछ ऐसा घुला रहता है कि मन और तन पुलकित-सा 
हुआ रहता है और कामबाण अगर किसी को सीधा न भी लगे तो उसके आस-पास से तो निकलता ही है उसे विचलित करता।  आगे मस्त-मस्त होली भी तो है तो फिर मैंने गुस्ताखी कर दी ग़ज़ल जैसा कुछ लिखने की -

हमें भी अपने हुस्न में कभी नहला दिया करो 
हमारे साथ भी कभी  इश्क फरमा दिया करो। 

हम यूं तो खुद चढ़ नहीं सकते चंद सीढ़ियाँ 
मगर ख़्वाबों में ही चाँद दिखा दिया करो। 

वैसे तो जीवन भर ताजमहल देखने को तरसते रहे 
कभी-कभी अपना  यूं ही दीदार करा दिया करो।  

यूं तो जीवन की आखिरी सीढ़ी है यह हमारी 
मरते को अपने पहाड़ों पर  चढ़ा दिया करो।  -सुरेन्द्र 












Wednesday, February 10, 2016

ग़ज़ल



भावनाओं के उफ़ान में लफ्ज़ टूट जाते हैं 
रूलाई उमड़ पड़ती है लफ्ज़ छूट जाते हैं। 

वक़्त गुज़र जाने पर अपने बहुत याद आते हैं 
साँप निकल जाने पर हम लक़ीर पीटते रह जाते हैँ। 

हालातों के चौराहे पर हम जख़्म चाटते रह जाते हैं 
किनारे पर आकर ही अक्सर जहाज डूब जाते हैं। 

लफ्जों के सही चुनाव में भावनाएँ भी रूठ जाती हैं 
संबंध अस्थिर हो जाते हैं हम हाथ मलते रह जाते हैं। 
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