कितना सुख, चैन, आराम है नग्न हो जाने में, प्रकृति के पास लौट जाने में, उन्मुक्त गगन के पंक्षी हो जाने में, बेपरवाह हो जाने में, स्वछंद हो जाने में वाह ! वाह !
बजाने को कलाकार ही नहीं साज भी होता है आतुर बजने को साज को छेड़ो अगर सजीले अहसास से तो सुर के पंछी पंखों को लगते हैँ फ़ैलाने दूरियों की तो बात ही क्या है - उँगलियों के पोरों से आत्मा तक को लगते हैं पिघलाने। समुद्र में नाव का माझी हो या किसान के मन में उगता अहसास याकि गौरी के मन में पिया मिलन की आस साज ही तो हैं छेड़ो तो एक ही सुर में लगते हैं गाने।