Sunday, June 23, 2019

...तो प्रतीक्षा ख़त्म
          आ गई है मेरी कविताओं भरी किताब "खिड़की एक  आशा "
इसमें  मेरी  82 कविताएँ  हैंजो  104 पृष्ठों में  समाहित  हैं। भूमिका  लिखी  है  डॉ बलदेव वंशी जी (मेरे पिताजी ) ने अपने स्वर्गवास से पूर्व  ही  वे मुझे यह आशीर्वाद दे गए थे।  प्रस्तुत है उनकी भूमिका के अंश -
"अंधकार के किले में उजाले की सेंध "  

   

नयी, आज की, अधुनातन,प्रश्नाकुल, दव्न्दात्मक आध्यात्मिकता इन कविताओं की आधारभूमि है।  सतर्क आस्तिकता है।  ऐन आज के व्यक्तित्व के तनावों, अस्तित्व के चहुंओर से घिरे होने के संकटों में वह किस का सहारा ले, किसे पुकारे -  उस की असहायता निःसहायता को दिनोंदिन गहराते जाने वाले वैश्यिक हिंसात्मक क्रम सामने हैं।  व्यक्ति इन के सामने हतप्रभ है।  

एक बिल्कुल नया, उभरता युवा स्वर।  अपनी औघड़ता में भी सुडौल ज्ञानात्मक संवेदना की सघन पहचान करातीं कविताएँ मानवीयता का भरोसा कहीं भी शिथिल नहीं होने देतीं। संबोधात्मक भावावेगी और कहीं विचारशमित गंभीर मुहावरा पाठक को अपने में बाँधने की ताव भी बनाये रखता है। 
अंध-आस्था और विचारान्ध नास्तिकता के मध्य स्वानुभूत तलाशी-आजमायी आस्तिकता बड़ी अश्वस्तकारी है। युगों पुरानी, तही-बनी, परम्परित-हस्तांतरित होती आयी पूजा-पद्ध्त्तियोँ तक को अध्यात्म की वैज्ञानिक तर्कना पर कस कर अपनाती-उपलब् करती जागृत विवेकशीलता हमारा-पाठक का विश्वास जीतती प्रतीत होता है 

हर प्रकार की जड़ता, काहिली, लापरवाही पर भी बड़ी सूक्ष्म,तेज व्यंग्य प्रहार भी जगह-जगह मिल जायेगा, किंतु अपनापन और हितचिंतक भाव लिए हुए। 
वर्तमान में जीवन-अस्तित्व को भीतर तक प्रभावित करने वाले राजनीति,बाजार,अर्थाचार आदि को ले कर आज प्रचलित सोच-व्यवहार को भी पर्याप्त अवकाश-स्थान प्रस्तुत है।
आज के समांतर जीते हुए हजार उद्वेलनों, द्वन्द्वो, संकटों, संघर्षों में घिरे व्यक्ति के अंतः संवाद सरीखी शैली में तथा स्वयं ही स्वयं की आत्मशक्ति को पुकारती-जगाती मनुष्य की इयत्ता से साक्षात्कार कराती कविताएँ हैं। 
अज्ञात मनोवैज्ञानिक परिसरों के धुंधलकों, भयों, भ्रमों, तहखानों में जहां व्यक्ति बाहरी मारों हारों  में पिट कर पहुंचता है, वहां भी कवि सुरेन्द्र भसीन हार मानकर  पस्त होने के बजाय जीवन की दुर्दुष, दुर्वह आत्मशक्ति के बल पर उबर आने का छोर नहीं छोड़ता। उस की आत्मदृष्टि ही अध्यात्म दृष्टि और भगवत्ता है। 
इन कथनभंगी कविताओं में शब्द-पदों की आवृति अर्थ को खोल कर रखने से गूढ़ार्थ को स्पष्टतर करने की सुविधा जुटाती है। 
कहीं-कहीं किये गये मिथकीय प्रयोग भी आकर्षक हैं। 
अन्य सामाजिक संदर्भों की कविताएं हों या इतर संदर्भों की उन की पृष्ठ भूमि में उक्त चेतना की उजास सतत बनी रहती है।  गहन भारतीय पारिवेशिक आस्थाशीलता हर कहीं स्पंदित है। युवा कवि सुरेन्द्र भसीन मानव-निर्मित वर्तमान विराट अंधकार के किले में उजाले की, आध्यात्मिक विश्वास के बल पर, सेंध लगाने को तत्पर है ! स्वागत है

                                                         
बलदेव वंशी 
                                                    बी-684, सैक्टर 49,
                                      सैनिक कॉलोनी, फरीदाबाद 121001
                                              
                   विमोचन आदि कराने की मेरी  हैसियत नहीं है। इसी को ईश्वर का, बड़ों का आशीर्वाद
मानते हुए मैं यह सभी को समर्पित करता हूँ।  कृपया ग्रहण करें।  
- सुरेन्द्र भसीन

Saturday, June 8, 2019

वे
सभी अपने हैं मग़र
अभी दुश्मन के बरगलाए हुए हैं
और हम उन्हीं अपनों से ख़ौफ़ खाये हुए हैं।
हाँ!वे आते हैं झुंड के झुंड
हाथों में पत्थर लिए-लिए और
हम अपनी ही संगीनें अपने
सीने तले दबाये,थरथराये
उन्हें ये खोखले आदेश मिमियाते हैं-
कि वे लौट जाएँ, हमारी संगीनों के साये
में क्यों बार-बार आते हैं।
हम खून खराबा नहीं चाहते हैं।
हमें मालूम है कि वे किसी मजबूरी के
सताये हुए हैं
इसलिए हाथों में पत्थर लिए संगीनों के सामने
अपना सीना अड़ाये हुए हैं और इस समय
गैरों के बरगलाए हुए हैं।
       -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, June 6, 2019

मैं प्यासी धरती कई जन्मों से
मुझे अपने प्रेमजल से नहलाओ
मैं बंजर धरती हूँ
सनम बादल बनकर
मुझपर बरस जाओ
तुम हो श्याम कारे... कारे
घन.. घन घनघोर...गहरारे
मैं हूँ गोरी पनिहार
मेरे घट को भर दो
मेरा जीवन सम्पूर्ण करदो
मेरे अंग अंग को सहलाओ
मैं हूँ प्यासी धरती
मुझे प्रेमजल से नहलाओ
सनम बादल बनके मुझ पर
बरस बरस जाओ।
      -----    सुरेन्द्र भसीन
पता था उन्हें
कुछ भी लड़ने को नहीं है इस बार
न कहने को,न उलाहने को,
न हथियार और न ही कोई औजार...
फिर भी
आदतन,इरादतन वे
लड़ने को मजबूरी में हो गए तैयार
क्योंकि वे विपक्षी थे
और विरोध उनका धर्म...
हार निश्चित जानकर भी वे
चुप नहीं रह सकते थे
कौरवों के अभिनय में जो थे
सामने के अर्जुन से हारने को रहना था तैयार
राम-रावण युद्ध में अनचाहे ही
तोहमत हार की करनी थी स्वीकार
राजधर्म के चलते
अपने कर्मधर्म के चलते!
       ------       सुरेन्द्र भसीन