Friday, March 29, 2019

दर्शन

यूँ
ये दरख़्त नहीं
भक्त हैं ईश्वर के
खड़े सनाथ
शांत चित्त नमन पूजा में
ईश्वरीय भजन में हिलते-डुलते हों जैसे...
और ये पहाड़ी श्रखंलाएँ-
शांत पड़ी देह ऋषियों की,पूर्वजों की
हमें निहारती याकि
समय का मुस्तैद कोई चौकीदार जैसे
धरा को निहारता अपनी निर्निमेष निगाहों से...
पक्षियों का कलरव
जानवरों की हुंकारें, हिनहिनाहटें, डकारें...
जल में फ़िरते
विभिन्न प्रकार के
रँगीले,सपनीले जलचर
और पृथ्वी का अनन्त विस्तार
सबकुछ
चमत्कृत, आह्लादित करता
एक खुली आँख का स्वपन
शहद-सी मीठी रसीली बून्द-सा
टपकने को
मात्र !
क्षण !
      ------   सुरेन्द्र भसीन
   



मकड़जाल

किसी
मकड़े को देखो
कैसे अपने ही बुने जाल में उलझा
कसमसाता है मग़र लालच की
बुनी तानो से छूट नहीं पाता है
बिल्कुल वैसे ही रिश्तों के तानों
में जकड़ा इंसान भी विवश छटपटा रहा है
मग़र छूट नहीं पा रहा है
यह जो सामाजिक ताने हैं
समय सोखती-उम्र चूसती हैं सदा...
इसमें घिरा इंसान
कितना इनसे सुख पा रहा है या
दुखी हुआ जा रहा है...
      -------     सुरेन्द्र भसीन

वहम

चैन का
शाँति का
विस्तार भी ऐसा होता है जैसे
बर्तन में पड़ा निश्छल दूध
वहम की एक बून्द पड़ते ही
फटता है
तार तार होता है...
       ----  सुरेन्द्र भसीन

प्रारब्ध

कितना भी
ऊँचा भी क्यों न चले जाओ
इस जीवन में
मग़र उससे ऊँचा, अनन्त, असीम
भी था कभी, है..और रहेगा...
कितना भी
नाम, धन,बल भी क्यों न पा लो
इस जीवन में
मग़र इससे अधिक, असीम और अनन्त भी
पाया था, है और पाया जाता रहेगा...
इस क्षण भंगुर संसार में तो
ऊँचाई के भर्म को न पालो
अपने जीवन के प्रारब्ध को समझो!
और इसे सम्भालो!
        -----    सुरेन्द्र भसीन

पुनर्जन्म एक प्रक्रिया

हमारी
इस देह से अधिक तो
हमारा दिमाग सोता है सदा...
शरीर तो उठता है हर दिन
मग़र हमें होश कहाँ होता है...
बेहोश पड़ा रह जाता है-
सब कुछ देखता,सुनता,करता, समझता भी...
जगता नहीं है जीवनभर
सोया-सोया-सा, खोया-खोया-सा...
यूँ शरीर तो आकर
चला जाता है इस संसार से कई कई बार
मग़र होश नहीं पाता जन्मों-जन्मों तक...
तभी तो
फिर-फिर आने को विवश
अपने को दोहराता
बार बार आता...
        ------    सुरेन्द्र भसीन

सच एक इबादत

सच में
सच के लिए
सब चुप हैं
कुछ बोलने से पहले ही
झूठ है... झूठा है के शोर के
पहाड़ के पहाड़ खड़े हो जाते हैं
और कुछ भी कहने से पहले-
सच बोलने से पहले
सभी अपनों से ही पिट जाते हैं।
न जाने लोग सच सुन हज़म क्यों नहीं कर पाते हैं?
कुछ कहने को उठो समाज में तो
कुर्ते फाड़ दिये जाते हैं या
काली स्याही से चेहरे पोत दिये जाते हैं
और सच कहो अपनों में तो
सदियों के अपने
क्षण में बेगाने हो जाते हैं।
             -------    सुरेन्द्र भसीन

Monday, March 18, 2019

कब्जा

जब
भी तुम
आकाश में उड़ती
किसी सुंदर चिड़िया को
पिंजरे में डाल लेते हो
सुंदरता को कब्जा लेते हो
तो तुम यह नहीं जानते कि
अब वह चिड़िया
सुंदर रही ही नहीं...
       -----       सुरेन्द्र भसीन

Saturday, March 9, 2019

सर्पीले सवाल

कितने ही अनगिनत
हाँ..न..किंतु..परन्तु..अगर..मगर के विषैले
साँपों को हटाकर जब भी मैं
सत्यरूपी मणि को उठाता हूँ तो
उसे नकली पाकर
हरबार ठगा-सा रह जाता हूँ कि
जब प्रश्नरूपी साँप असली थे
तो उत्तररूपी मणि नकली क्यों?
क्यों यह इस जीवन में चल नहीं पाती है
मेरे किसी काम नहीं आती है?
हर तरफ प्रश्न हैं 
प्रश्न का सागर है गोता खाने को
ऊबचूब होकर, उनमें डूब के मर जाने को
मगर कोई किनारा नहीं न मिलता
उनसे पार उतर जाने को....
          ----     सुरेन्द्र भसीन




Friday, March 1, 2019

हम नहीं चाहते
मग़र वे तारें-बाड़ें पार कर-कर के
आते हैं इधर बारंबार...
हम नहीं चाहते
फिर भी वे मारे जाते हैं हमारे हाथों
उन परायों की आजादी की चिंता करते
जो कभी ग़ुलाम थे ही नहीं और
जिन्होंने एक बार भी उन्हें पुकारा ही नहीं...
मग़र वे चिंता नहीं करते  अपनी,
अपने वतन की
अपने करोड़ों भाईयों की
जो उनके गुनाहों की शर्मिंदगी ढोते हैं और
बेवजह गुनाहगार होते हैं...

 वे स्वार्थों पर सवार
हारे हुए जुआरी
जब-जब दांव लगाते हैं
अपनी हार-हार के सिवा कुछ नहीं पाते हैं...

अब कोई खैंचकर जबर्दस्ती उन्हें
इस नापाक दलदल से निकालेगा वरना
इंसानियत का दुश्मन टोला सब को
मुश्किल में डालेगा।
          ------       सुरेन्द्र भसीन
अपनी नज़र का नजराना दे दो
नज़र मिलाने का इक बहाना दे दो।

प्यार नहीं है तो उलाहना दे दो
सांत्वना का इक सिरहाना दे दो।

रूप का सपना सुहाना दे दो
इक गीत गज़ल शायराना दे दो।

शुक्रवार है तो शुकराना दे दो
शुक्रिया कहने का बहाना दे दो।

याद नहीं हूँ तो यादों में रहकर
जीने का मुझे इक बहाना दे दो।
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