Tuesday, February 10, 2015

दो नन्ही कवितायेँ जीवन पर

देखा मैंने 
पर्वत को पत्थर  होते 
पत्थर को गारा होते 
गारे को सारा होते
 सारे को मैंने देखा 
अपने को गारा होते। 

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पहाड़ की बनती है रेत 
रेत फिर बह जाती सागर में.…। 
सागर से वह किनारे आती 
और किनारे से.…। 
… तो बच्चे अपने पाँओं पर लेकर नन्हे नन्हे ढूह बनाते 
पहाड़  का  मुँह चिढ़ाते। 
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Thursday, February 5, 2015

जुबान - कविता

किसी को क्या कहते हो 
जो कुछ कहना है 
अपने से ही कहो,
तुम्हारी ही आवाज 
तुम तक ऐसे आती है 
कि तुम्हारी ही पहचान खो जाती है ,
बर्फ ही जैसे 
पानी हो जाती है। 

      ००००