Saturday, October 24, 2020

हम सब में ही है रावण

 नहीं

मैं नहीं मरूंगा!

जितना भी क्यों न जला लो तुम मुझको

मैं कभी नहीं जलूँगा!

मैं तुम्हारे वजूद का हिस्सा जो हूँ

हँसी, खुशी,सुख,आनंद,प्रेम आदि के साथ

दुख, क्रोध,हिंसा,हवस बनकर

तुम्हारे भीतर ही पैठा हूँ

तुममें ही जीता हूँ यकसार होकर

तुम्हारी ज़रूरत बनकर...

फिर चाहो या न चाहो

जब-तब, बार-बार निकल/उबर आता हूँ

कालिया नाग बनकर

तुम्हारे जीवन जल को जहरीला करने याकि

कोई पुराना श्राप बनकर या फिर

राहू का ग्रहण बनकर

तुम्हें ग्रसने!

मुझे मालूम है तुम सब

राम या कृष्ण नहीं बने रह सकते हो जीवन भर

तो मैं भी

आता ही रहूँगा तुममें बार बार

अपनी विद्रुप हँसी हँसता

वासना का काला नाग बनकर

तुम्हें बार बार

डसने!

        ------   सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, February 25, 2020

दादू राम अगाध

         दादू
यह देह भी क्या शह है कान भी निरे सूप हो जाते हैं कभी-कभी और भीतर लगे हैं श्रवण यन्त्र, कान की इन्द्रियाँ पकड़ लेती हैं अहम की बातें और भेज देती हैं आगे- मन के पास...और मन मनभावन रोक कर भेज देता है बाकी मस्तिष्क की मशीन में... और वह तो जैसे रूकती ही नहीं, पीसती है, भेदती है तत्व को। मस्तिष्क की मशीन तो चलती ही रहती है सदा मेरे भीतर कोयले वाले इंजन के पहियों की तरह! गोल-गोल। आगे भी पीछे भी। छुक.. छुक..छुक..छुक...
       हफ्ताभर भी नहीं हुआ इस नये शहर दिल्ली में, देश के दिल में उतरे। गर्मियों के लंबे दिन। पंखे के तो अपने ही पसीने भी नहीं सूखते। शाम छह बजे उठते उठते भी बॉस के कमरे से आती आवाजें पड़ ही गई कानों में-
सर! किसको पकड़ लाये?
किसकी बात कर रहे हो?
वही जो नया आया है जीवन प्रकाश! निरा बावला है, भला उससे क्या  होगा?
तुम्हें इससे क्या?
आज पकड़ लिया चपरासी रामू को और कहने लगा जाओ माफ़ी मांगो उस दरवाजे से। इतनी जोर से बंद किया तुमने उसे! कितना चीखा वह दरवाज़ा जोर से दर्द में।
तो क्या कहा रामू ने?
रामू क्या कहता भला! लगा खीसे निपोरने! अब साहब क्या करता गुस्से में था तो जरा कर दिया जोर से बंद..
...। ....और फिर भला दरवाजे में कहाँ जान है, वह भला कहाँ सुनता या जवाब देता है?
फिर आप सुनें, आगे से क्या कहता है जीवन?
"कि जब उसमें जान नहीं, उसने कुछ कुसूर किया नहीं तो क्यों निकाला गुस्सा अपना उस बेजुबान पर!"
लो कल लो बात! -अब सारा सामान ही इसके मामे हो गये!
इस साधू से तो पत्रकारिता का मंथन होने से रहा...
समेट तो मैं चुका ही था अपनी टेबल। अपनी

Friday, January 24, 2020

वैसे तो
महज एक आवाज ही
दूर थी वो मुझसे
मग़र सालों-साल वो हलक से ही न निकली...
मीलों-मील हो गईं हैं दूरियाँ
काली घुमावदार तारकोली सड़कों-सी
बिछ गई हैं दरमियाँ में
अगर-मगर, किन्तु-परन्तु के आवरण चढ़ चुके हैं भावनाओं पर और
छोटी भोली पगडंडी-सी गलतियां अब नहीं रहीं।
मन तो प्याज की गुठली-सा
दबा पड़ा है अपने ही कलेवर के नीचे
जैसे बरसों से बेगाने होकर रह रहे हैं हम
एक ही छत के नीचे...
स्वयं में उलझे जैसे दो ऊन के गोले
देखो कब खुलते हैं...
हम फिर शादी से पहले जैसे
कब मिलते हैं?