अजनबी
चाहे मैं
हर गुजरी रात
तुम्हारी देह की
गोलाइयाँ-ऊँचाइयाँ-नीचाइयाँ मापता
उसके कितने भी क्यों न
निर्द्वन्द चक्कर लगाता हूँ
और अपनी पहुँच व पहचान के
कितने भी निशान क्यों न उसपर
छोड़ आता हूँ
मगर हर अगली रात
मैं इस देह को बिल्कुल नयी-सी पाता हूँ
और उसके लिए अजनबी हो चुका मैं
फिर से
अपनी पहचान के निशान बनाने
लग जाता हूँ।
------- सुरेन्द्र भसीन
चाहे मैं
हर गुजरी रात
तुम्हारी देह की
गोलाइयाँ-ऊँचाइयाँ-नीचाइयाँ मापता
उसके कितने भी क्यों न
निर्द्वन्द चक्कर लगाता हूँ
और अपनी पहुँच व पहचान के
कितने भी निशान क्यों न उसपर
छोड़ आता हूँ
मगर हर अगली रात
मैं इस देह को बिल्कुल नयी-सी पाता हूँ
और उसके लिए अजनबी हो चुका मैं
फिर से
अपनी पहचान के निशान बनाने
लग जाता हूँ।
------- सुरेन्द्र भसीन