Thursday, April 26, 2018

अजनबी

अजनबी

चाहे मैं 
हर गुजरी रात
तुम्हारी देह की
गोलाइयाँ-ऊँचाइयाँ-नीचाइयाँ मापता
उसके कितने भी क्यों न
निर्द्वन्द चक्कर लगाता हूँ
और अपनी पहुँच व पहचान के 
कितने भी निशान क्यों न उसपर
छोड़ आता हूँ
मगर हर अगली रात
मैं इस देह को बिल्कुल नयी-सी पाता हूँ
और उसके लिए अजनबी हो चुका मैं 
फिर से
अपनी पहचान के निशान बनाने
लग जाता हूँ।
       -------   सुरेन्द्र भसीन
खुद को संभाला है जबसे
अपने लिए मैंने हँसना और
रोना छोड़ ही दिया है तब से...
अपने सुखों से, दुखों से
तोड़ ही लिया है रिश्ता तब से...
बादलों-सी याद आती है उनकी तो
आँसू भी तिर आते हैं आँखों में
भूल से देख लेता हूँ उनका चेहरा कभी तो
खिली धूप-सी चमक छा जाती है चेहरे पे...
वरना तो सारे सम्बंधों से,हँसने से, रोने से
मैंने रिश्ता तोड़ ही लिया है याकि
अपने सुखों और दुखों पर
हँसना-रोना छोड़ दिया है।
        -------    सुरेन्द्र भसीन

Thursday, April 12, 2018

द्वंद

द्वंद
हर रोज ही
अनेकानेक बातों पर
दिल और दिमाग आपस में लड़ जाता है
जो हारता है वो
सिकुड़ता-सिमटता है और
जो जीतता है वह फूल कर बड़ा हो जाता है
मग़र सही और गलत का निर्णय तो
वक्त भविष्य में करके बताता है
वैसे जब कभी दिल की मानों तो
वह नुकसान करवाता,हँसी उड़वाता और
जूते खिलवाता है और कभी
दिमाग की मान जाओ तो
सभी इंद्रीयां विद्रोह करती और शरीर के द्वारा
काम करने को इंकार करती हैं...
दोनों के सामंजस्य से ही साइकिल चलता है
वरना इंसान टूट फूट कर
गड्डे में जा पड़ता है....।
------ सुरेन्द्र भसीन

....तुलते-तौलते

....तुलते-तौलते
न जाने क्यों
लगता है मुझे
कि तुम कहीं गये ही नहीं हो
यहीं कहीं हो...
हर वस्तु, पेड़-पौधे, फूल-पत्ती से झाँकते
और मेरी ही नजरों से, आत्मा से
मुझे हर समय तौलते!
आँकते!
अब मेरा सारा जमीर ही रहता है सदा
कैमरे की पैनी निगाह में याकि
स्कैन होता जाता मेरा अस्तित्व...
सांस-सांस, तार-तार
फेफड़ों में बजती, ऊपर नीचे चलती
दिखती है मुझे स्वयं को लगातार...
निर्लेप, निष्पक्ष हो करती
आकलन मेरा,
मेरे कृत्यों का...
तौलती मुझे
तुम्हारी दी शिक्षाऔं पर, आदर्शों पर....
मैं समझ नहीं पाता हूँ कि
कोई ऐसे कैसे बिता सकेगा
लम्बा भरा पूरा जीवन
द्वीज होकर अपनी ही नजरों में
अपने को, देखते..झेलते...
अपनी ही नजरों में
निरन्तर तुलते-तौलते!
------ सुरेन्द्र भसीन