Tuesday, April 12, 2016

Friday, April 8, 2016

प्यास


प्यास

मेरे भीतर
अब मेरा बचा क्या  है ?
मेरे  अन्तर्मन में तो -
तू, तू  और  सिर्फ तू ही बसा है।
भीतर से उठती आती है
सिर्फ तेरे नाम ही की आवाज
जो मुझे, अपने साथ ही खींच ले जाती है
घंटों की तेरी सुधी में
मेरी बेसुधी हो जाती है।
लौ-सी सनाथ खड़ी मेरी आत्मा
जलती है न बुझती है
तेरी चाह में बस
डबडबाये जाती है।
      -------           -सुरेन्द्र भसीन              





Saturday, April 2, 2016

कविता हुई या गजल

हमारे देश का समां क्या-क्या रंग दिखा रहा है 
यह आज किसी को भी समझ नहीं आ रहा है 
बोलने की आजादी क्या हुई इस देश में 
सारा  देश  ही पगला कर बड़-बड़ा रहा है। 
न जाने क्या का क्या बके जा रहा है और 
कहा कुछ जाता है और समझे कुछ जा रहा है। 
यहां कोई किसी की नहीं सुनता ठीक से 
हर कोई अपना ही आलाप गा रहा है। 
कोई गिरता-धंसता ही जा रहा है 
तो कोई बढ़ता-चढ़ता ही जा रहा है। 
किसी को मनरेगा की मजदूरी भी नसीब नहीं 
और कोई हजारों-करोड़ साफ़ किये जा रहा है। 
हंसने की वजह लाखों भी क्यों न हों मगर 
बिना वजह हर कोई सिसके ही जा रहा है। 
सारा देश कुछ अच्छा होने की इंतज़ार में है 
मगर इंतज़ार है कि बढ़ता ही जा रहा है। 

अब दोस्तों यह कविता हुई या गजल यह 
आपको क्या मुझी को समझ नहीं आ रहा है। 
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