माँ ओ मेरी माँ
विश्वास नहीं होता
कि अब वो नहीं रही...
अपने को समझाने के लिए
रोज उनके चित्र पर फूल चढाता हूँ,
रोज उनके चित्र के आगे नमन करता हूँ,
रोज उनको दीप-धूप भी करता हूँ मग़र
फिर भी विश्वास नहीं होता???
अपने को समझाता हूँ बार बार कि
अब वो नहीं रही, नहीं आयेगी, नहीं समझाएगी
दुनिया की ऊंच-नीच
नहीं रोकेगी, नहीं टोकेगी
नहीं रोटी-पानी पूछेगी
न पूछेगी बच्चों का हाल चाल
नहीं नाराज होगी
नहीं नाराजगी झेलेगी, न ही मनाएगी।
मग़र मन यह मानता ही नहीं
मन तो यही कहता है कि
वो नहीं गयी कहीं, जायेगी भी नहीं कभी..
भीतर ही समायी है अभी
सदा फिजाओं में रहेगी, हमारे साथ
सुबह जगायेगी
जिम्मेवारियों का अहसास करायेगी और
मेरी बगिया के
नन्हें फूलों की रक्षा करो
रोज रोज यही कहती जायेगी..
इसलिए मन कहता है कि
वो कहीं नहीं गई
न जायेगी कभी।
---- सुरेन्द्र भसीन