Friday, January 24, 2020

वैसे तो
महज एक आवाज ही
दूर थी वो मुझसे
मग़र सालों-साल वो हलक से ही न निकली...
मीलों-मील हो गईं हैं दूरियाँ
काली घुमावदार तारकोली सड़कों-सी
बिछ गई हैं दरमियाँ में
अगर-मगर, किन्तु-परन्तु के आवरण चढ़ चुके हैं भावनाओं पर और
छोटी भोली पगडंडी-सी गलतियां अब नहीं रहीं।
मन तो प्याज की गुठली-सा
दबा पड़ा है अपने ही कलेवर के नीचे
जैसे बरसों से बेगाने होकर रह रहे हैं हम
एक ही छत के नीचे...
स्वयं में उलझे जैसे दो ऊन के गोले
देखो कब खुलते हैं...
हम फिर शादी से पहले जैसे
कब मिलते हैं?