जैसे एक में
अनेक एक होते हैं
उसी तरह मेरे में ही
असंख्य मैं हैं बसे हुए
मेरी ही लिपी,प्रतिलिपि, अनुलिपि
एक में एक
गुंथे हुए, घुसे हुए, ठुंसे हुए
विभिन्न भावों में, परिस्थितियों में उबरते
अनेकानेक तेवर और रंग बदलते।
चाहे वे मुझमें ही रहते हैं
अपना तन-फन समेटे
मेरे लिए ही लड़ते-भिड़ते,बुरा बनते
मगर फिर भी उनसे असहमति में
अपना असल वजूद तलाशने में असमर्थ
अपने ही रूपों का विरोधी
अपने से द्व्न्द करता,
अपने को अनिश्चय के चौराहे पर खड़ा पाता हूँ,
कह कर या करके बहुत पछ्ताता हूँ।
मेरी ही लिपी,प्रतिलिपि, अनुलिपि
एक में एक
गुंथे हुए, घुसे हुए, ठुंसे हुए
विभिन्न भावों में, परिस्थितियों में उबरते
अनेकानेक तेवर और रंग बदलते।
चाहे वे मुझमें ही रहते हैं
अपना तन-फन समेटे
मेरे लिए ही लड़ते-भिड़ते,बुरा बनते
मगर फिर भी उनसे असहमति में
अपना असल वजूद तलाशने में असमर्थ
अपने ही रूपों का विरोधी
अपने से द्व्न्द करता,
अपने को अनिश्चय के चौराहे पर खड़ा पाता हूँ,
कह कर या करके बहुत पछ्ताता हूँ।