Tuesday, January 26, 2016

अस्तित्व

जैसे एक में
अनेक एक होते हैं 
उसी तरह मेरे में ही 
असंख्य मैं हैं बसे हुए
मेरी ही लिपी,प्रतिलिपि, अनुलिपि 
एक में एक 
गुंथे हुए, घुसे हुए, ठुंसे हुए 
विभिन्न भावों में, परिस्थितियों में उबरते 
अनेकानेक तेवर और रंग बदलते।    
चाहे वे मुझमें ही रहते हैं 
अपना तन-फन समेटे 
मेरे लिए ही लड़ते-भिड़ते,बुरा बनते
मगर फिर भी उनसे असहमति में 
अपना असल वजूद तलाशने में असमर्थ 
अपने ही रूपों का विरोधी 
अपने से द्व्न्द करता,
अपने को अनिश्चय के चौराहे पर खड़ा पाता हूँ, 
कह कर या करके बहुत पछ्ताता हूँ। 










Saturday, January 9, 2016

यात्राएँ

बचपन से 
अपनी इस लम्बी उम्ह्र के पार आते -आते
इस श्मशान में लकड़ियाँ ढोते तुम 
बुरी तरह सठियाने लगे हो और 
हड्डियों को लकड़ियाँ और 
लकड़ियों को हड्डियाँ बताने लगे हो।  

अब आग में 
लकड़ियों के झुलसने भर से तुम 
जहां मौत के शोक में जाने लगे हो
वहीं हड्डियों के आग में चटकने पर पगला कर 
जलती चिता के इर्द-गिर्द नाच-नाच कर 
लोहड़ी के गीत गाने लगे हो  

वैसे अनगिनत अपनों और बेगानों को 
इन लकड़ियों के हवाले कर चुके तुममें 
अब जीवन बचा ही कहाँ है,
तुम्हारी बीमार-बकराल देह को ढके ये कपड़े भी 
जैसे कीकर की छाल बन चुके हैं 
जो तुम्हारे मृत देह के साथ ही  जलाये जायेंगे,
और धू -धू जलती चिता के गिर्द 
लोग जलती हड्डियों का शोक नहीं 
नाच-नाच कर लोहड़ी का गीत 
नया ही गायेंगे। 
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